पूर्वजों के प्रति व्यक्त श्रद्धा ही जब व्यवस्थित हो स्थूल रूप में प्रकट होती है तो उसे श्राद्ध शब्द से विहित किया जाता है। सनातन विचारधारा में आत्मा को मृत्यंजय माना गया जिसका कभी नाश नहीं होता। वह बस अपना कलेवर बदलती है। इन पंद्रह दिनों में हम पूर्वजों को तर्पण करते है और उनके देह छोड़ने की तिथि को श्राद्ध करते है इसके पीछे जो मूल भावना है वह उन शक्तियों को पुष्ट करना है जो हमें सदा सकारात्मक ऊर्जा, विचार,और उत्थान देती है। एक प्रकार से हम धन्यवाद प्रेषित करते है।
प्रथ्वी की वायुमंडल की सीमा के बाहर एक सूक्ष्म लोक और है जो पितृ लोक कहा जाता है जहां के नित्य निवासियों को हम पितृ पुरुष बोलते है। भले ही हम अपने पूर्वजों को तर्पण और श्राद्ध करते है लेकिन वास्तव में उसको ग्रहण वहां की नित्य निवासी सूक्ष्म आत्माएं ही करती है। यदि वे कुपित हो जाए तो पितृ दोष लग जाता है।
एक साधक को ऊर्जा के हर स्तर को अपने अनुकूल बनाते हुए अपने मार्ग पर बढ़ते चले जाना चाहिए क्योंकि जब ऊर्जा का प्रत्येक स्तर हमारे अनुकूल होता है तो हमें कभी किसी भी स्थिति में आत्म पथ के लक्ष्य को पाने में कोई परेशानी नहीं आती। बल्कि हर स्तर पर सहयोग मिलने लगता है, ग्रह नक्षत्र तारा मंडल निहरिकाएं सब हमारे अनुकूल हो जाते है प्रकृति हमें स्वयं में आत्मसात कर लेती है और हम जगत जननी के लाडले बन जाते है जो कि हमारा एक मात्र ध्येय है।
Comments (3 )
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Thank you for sharing this.. I would appreciate if you can shade some light on importance and explain rituals during shraddh and after death rituals.🙏
आर्य संस्कृति में आत्मा को नित्य माना गया है । हमारे आर्ष ग्रंथ आत्मा को अविनाशी मानते है और तदनुसार देह त्याग के उपरांत उसके आगे की यात्रा को श्रेष्ठ और सुविधा जनक बनाने के लिए कुछ कर्म विहित है जो किसी भी व्यक्ति के मृत्यु पश्चात करना बताया गया है। कोई भी व्यक्ति चाहे वो किसी भी श्रेणी का हो जीवनमुक्त साधक को छोड़कर , मृत्यु के उपरांत वासना देह को प्राप्त होता है जिसे हम प्रेत शरीर बोलते है।चूंकि कोई भी आत्म कभी भी बिना देह के नहीं रह सकती इसलिए स्थूल देह छूटते ही वह अपनी वासना के अनुसार देह को प्राप्त कर लेता है इस प्रेत देह से उसे मुक्त करने के लिए हम दशगात्र विधान करते है तत्पश्चात ग्यारहवें दिन शुद्धि का कार्यक्रम । ये कर्मकांड पूर्ण वैदिक मान्यता के अनुशार होता है। जैसे जैसे ये कर्मकांड पूर्णता की ओर पहुंचता जाता है मृतक आत्मा अपने प्रेत शरीर से छूटती जाती है और उसके सूक्ष्म देह का दिन प्रतिदिन निर्माण होता जाता दस दिन के उपरांत वह अपना पूर्ण सूक्ष्म देह प्राप्त कर लेता है और उसे प्रेत शरीर से मुक्ति मिल जाती है। फिर वह अपने कर्ता भाव से किए गए कर्म के अनुशार अपनी आगे की यात्रा प्रारंभ करता है। जिन लोगों का ये कर्मकांड नहीं हो पाता कारण कुछ भी रहे वे अतृप्त प्रेत योनि में हजारों वर्षों तक भटकते रहते हैं और महान कष्ट पाते है साथ ही अपने निकट संबंधियों को भी परेशान करते हैं । पितृदोष भी इन्ही के कारण किसी की कुंडली में आता है । जब तेरहवीं में ब्राह्मण भोज दिया जाता है तो मृत आत्मा के कुसंस्कार इन ब्राह्मणों में चले जाते है जिससे उसे कुछ राहत मिल जाती है। तभी तो ब्राह्मणों का पतन भी हुआ क्योंकि वे अब तपस्वी तो रहे नही कि अपनी ब्रह्म ऊर्जा से उस प्रतिकूल ऊर्जा को नष्ट कर सके लेकिन लालच के अधीन वे मृत्यु भोज ग्रहण करते रहे और अपने ब्राह्मण त्व को ही गंवा बैठे 😀😀।.
Very informative
Thanks. Comments keeps us motivated to post more blogs..
Thank you for your reply Krishna Chaitanyaji. This is Very well explained and very promptly replied. 🙏
Welcome :).