नाभीढांग यानि मणिपूर चक्र का ऐश्वर्यशाली स्थान। यहां से योग विभूतियां जाग्रत होने लगती है क्योंकि शक्ति अपने ऐश्वर्य को प्रकट करना शुरू कर देती है। ख्याति प्रख्याति यही से प्रारम्भ होती है। साधक बहुधा इनमे उलझ कर रह जाते है और फिर इसी स्थान पर टिक कर जीवन भर समस्त भोग कर देह त्याग कर देते है। महाकाली यही से अपना स्वरूप परिवर्तित करना शुरू कर देती है। अब वह आह्लाद के रूप में प्रकट होने लगती है। बृज की माधुर्यता का प्रारम्भ यही से होता है। जो उत्तरोत्तर हृदय चक्र यानि अनहत चक्र पर आकर अपना पूर्ण विकास कर लेता है। मणिपूर चक्र में नहीं उलझना हमें। तभी तो नाभीढांग से रात्रि के अंधकार में ही निकलना पड़ता है ताकि संसार में प्रकाशित होने के पहले अपने मुकाम को प्राप्त कर लें। विकट चढ़ाई क्योंकि नाभि चक्र में कुछ सुविधा भोगी हो जाता है साधक। फिर अंधकार वो भी मध्य रात्रि।
लेकिन शनै शनै चलता हुआ वह प्रातः की पहली किरण के साथ ही "लिपुलेक पास" पर का पहुंचता है। यही वह स्थान है जहां से जीव भाव की समस्त विकारी ऊर्जा नष्ट हो दिव्य भाव से हृदय आप्लावित हो जाता है। समस्त मानवीय संवेदनाएं प्रस्फुटित हो उठती है। कुछ साधक यहां तक आते आते भाव विभोर हो जाते है और मन: तत्व की भाव भूमि में स्थापित हो जाते है। यहां पहुंच के दया, ममता, करुणा, प्रेम यहां तक कि स्त्रैण गुण विकसित होने लगते है क्योंकि यहां से शक्ति का स्वरूप पोषण करने वाली वात्सल्य से परिपूर्ण जगन्माता का हो जाता है। यही विष्णु ग्रंथि का छेदन भी होता है। साधक इस स्थान पर कुछ रुकता है विश्राम करता है। क्योंकि अब यहां से यात्रा आरंभ होगी शिव क्षेत्र के लिए जहां से साधक को रुद्र ग्रंथि का छेदन करना है। यही से चन्द्र नाड़ी अपने वैभव को प्रकट करने लगती है क्योंकि सूर्य नाड़ी की चंचलता अब इतनी नहीं दिखती जितनी प्रारम्भ में थी। इस स्थान पर बहुत परीक्षण होता है। बहुत ही उच्च कोटि के साधक यहां के अवरोध पार कर आगे जा पाते है क्योंकि यहां से रुद्र क्षेत्र है। शिव के अटपटे गण पता नहीं किस बात पर नाराज़ हो बैठे और प्रवेश निषेध कर दिया जाए। मार्ग कुछ सुविधा जनक तो है पर भय मिश्रित, कौतूहल से भरा हुआ क्योंकि ये क्षेत्र अब तक साधक से लगभग अछूता रहा है। कृपा साध्य होने के कारण कठिन लंबा होते हुए भी सहज पार हो जाता है।
फिर आता है "तकला कोट"। इससे तात्पर्य तालु के नीचे विशुद्ध चक्र से है। यह वाणी का स्थान है। बैखरी और सामवेद का गायन इसी स्थान से हुआ। शिवत्व की महिमा का गुणगान इसी स्थान से हुआ करता है। लेकिन यहां तक पहुंचने में कितने अवरोध ना आए होते है। कितने परीक्षण। उत्तरोत्तर उर्द्ध मुख आप जैसे जैसे होते जाओगे उतने ही कठिन परीक्षण आपको उत्तीर्ण करने होंगे। साधक को गुरुकृपा का आलंबन ही उसे समस्त अवरोधों से मुक्त करता हुआ उस अपने परम लक्ष्य तक पहुंचा देता है। जो इस संसार में तिरस्कृत होता है उसे है शिव के समीप पुरस्कार मिलता है वहीं बड़भागी कैलाश पर पुरस्कृत होता है। इसलिए संसार में पुरस्कृत होने की कामना का सर्वदा त्याग कीजिए ताकि कैलाश पर शिव के सम्मुख शिव के द्वारा पुरस्कृत होने का परम सौभाग्य प्राप्त हो सके।
जयति अवधूतेश्वर
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