आत्मानुसंधान:

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आत्मानुसंधान

जैसे ही हम ये शब्द सुनते कि बहुत गंभीर होकर बैठ जाते है कुछ भय के कारण तो कुछ नासमझी से। कुछ लोग उदासीन भी हो जाते है क्योंकि उनकी भौतिक सोच में ये सब बातें फिजूल और माथापच्ची के अलावा कुछ नहीं। लेकिन आप जैसे कुछ लोग जो बहुत स्थूल रूप से जीवन के भौतिक पहलू से जुड़े होने पर भी अपने लक्ष्य के प्रति सचेत रहते है साधुवाद आपको।

हम जो जीवन या ये जगत देखते है सिर्फ इतना ही नहीं है। चूंकि जन्म से हमने स्थूल नेत्रों से जो देखा या नेत्र जो देखने के अभ्यस्त रहे उसके अतींव कुछ देखने की परिकल्पना नहीं कर सकते इसलिए या तो ऐसे लोग आत्मा या इससे सम्बन्धित विषय को नकार देते है या यह कह कर किनारा कर लेते है कि ये सब साधु संतों की बातें मुझे क्या मुझे तो घर गृहस्थी देखनी इत्यादि। 

एक विचारक हुए सुश्रुत। अति भौतिक वादी। उनका उद्घोष था " याव त जीवेत सुखम जीवेत रिऋणम लित्वा घृतम पिवेत।"

यानि जब तक जीयो सुख से जीयो, घी पियो, चाहे उसके लिए ऋण भी लेना पड़े। लेकिन कामनाओं वासनाओं का कभी विराम नहीं है। एक की पूर्ति करो दूसरी उठ खड़ी होती है। 
तब कुछ विशिष्ट जन इसके उलट यानि भौतिक वाद को छोड़ आत्मानुसंधान में रत हुए। जो ऋषि कहलाए। उन्होंने दीर्घ अन्वेषण और महान त्याग तप से जो अनुभूति को पाया वहीं हमारे भारतीय मनीषा की अमूल्य निधि है जो सतत मानव को महा मानव बनाने के लिए लालायित है। 

हमारी आत्मा जो इस देह में अवस्थान कर रही लेकिन दृष्टि में नहीं आती, हम इस देह में कहां स्थिति है क्या हम ऐसे ही है जैसा की जीव भाव से सोचते है या हमारा स्वरूप कुछ और है हमारी सत्ता क्या इस देह तक सीमित है या हम भी विराट व्यापकता लिए हुए विभु है।जब कोई व्यक्ति इस विषय को अपनी खोज के लिए लेता है तो वह साधक है योगी है और है आत्मानुसंधान कर्ता। 

इसके विषय में इतनी भ्रामक बातें प्रचलित है कि हर दूसरा व्यक्ति महान भ्रम में है । कल ही एक जिज्ञासु कैलाशी से बहुत देर वार्ता में यही पाया कि कितना भ्रम जो हटाए नहीं हटता सुनने को तैयार नहीं। उसकी भी गलती नहीं । उसने जो अब तक सुना है उसे हृदय में धारण कर लिए । अब वह पर्त इतनी जम चुकी कि हटती नहीं।

शरीर में जो चक्रों की परिकल्पना की गई यथा - मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान, मणिपूर चक्र, अनाहत, विशुद्धा, आज्ञा और सहस्रार चक्र। ये चक्र वास्तव में आत्मा के ऊपर चढ़े हुए खोल ही तो है या यूं कहो कि इन्हीं सात चक्रों को हटाने के बाद या वेधन करने के बाद हमारा आत्म स्वरूप अपना परिपूर्ण प्रकाश प्रकट करता हुआ हमारे बोध में आता है। वैष्णव इसे है स्वरूप प्राप्ति बोलते है। इन्हीं चक्रों को वेध कर योगी आत्म वेत्ता बनता है और समाधि का अक्षय लाभ प्राप्त कर आप्त काम हो जाता है। ये साधना कोई एक जन्म की नहीं, जन्मों जन्मों की बात है।

जब कोई योगी पूर्व जन्मों में परिपूर्ण अवस्था प्राप्त कर चुके होते है और यदि किंचित भोग या लीला के लिए उन्हें आना पड़े तो वहीं महान अवतार या युगश्रेष्ठ पुरुष कहलाए। मैंने यहां दो बातें कहीं किंचित भोग और लीला। लीला को वह योगी आता है जो पूर्व में ब्रह्म से तद रूपता प्राप्त कर अपने स्वरूप में स्थित हो गया हो जैसे राम, कृष्ण। और किंचित भोग के लिए उन्हें आना पड़ता है जो परिपूर्ण समाधि लाभ तो प्राप्त कर चुके लेकिन किसी ना किसी मात्रा में उनके अंदर कर्म का बोध शेष रहा। जैसे परमहंस देव, लाहिड़ी बाबा, त्रेलंग स्वामी आदि। 

इन्हीं चक्रों से हम सप्त देह को भी नामित कर लेते है। अन्तिम देह आत्म शरीर होता है जो पारदर्शी और नीलिमा मिश्रित उज्जवल रंगत का होता है उसके पहले जो देह होता है वह वादामी रंग का पारदर्शी होता है जिसे हम आज्ञा चक्र को वेध के प्राप्त करते है ऐसे ही और भी कई। पूर्ण मनोयोग से को साधक प्रगाढ़ इच्छा शक्ति ले जब साधन में लग जाता है और जिसे ऐसे सदगुरु की प्राप्ति हो जाए जो उसकी चिति जाग्रत कर दे। ऐसी अवस्था में कहा जा सकता है दिल्ली दूर नहीं।


अवधूतेश्वर विजयते।

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