ये युक्ति रामकृष्ण देव कहा करते थे । वास्तव में अनन्त तक पहुंचने के मार्ग भी अनन्त ही है किसको किस प्रविधि से आत्मोपालब्धी हो कुछ भी कहा नहीं जा सकता । व्यक्ति को जब भी परम की यात्रा की तीव्र अभीप्सा चेतना में व्याप्त हो तो प्रथम वह स्वयं का आंकलन करे कि यह मेरी गहरी अभीप्सा है या श्मसान वैराग्य की तरह क्षणिक । क्योंकि कई बार सज्जनों के सानिध्य से भी ये क्रिया घटित होती है जो कुछ समय बाद स्वत: ही शांत हो जाती है । सबसे पहले हम स्वयं के प्रथम गुरु है यानि मार्गदर्शक , पुनः यदि स्वयं को कसौटी पर खरा पाया जाए तो आगे विचार करें कि मेरा मार्ग कौन सा । हमें अपने आंतरिक भाव की पूर्ण जानकारी होना चाहिए और अपने पथ प्रदर्शक को ये बताने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि मुझे ये रुचिकर है और ये अरुचिकर ।
कभी कभी हमें स्वयं पता नहीं होता कि हमारी आंतरिक स्थिति क्या है ऐसी स्थिति में हमे अपने पथप्रदर्शक पर पूरी तरह छोड़ देना ही उचित होता है लेकिन उसके लिए अपने अंतस में महान श्रृद्धाहो तब । अन्यथा ये स्थिति कभी कभी बहुत दुखदाई और असमंजस वाली बन जाया करती है । योग महाविज्ञान में श्रेष्ठ पथ प्रदर्शक के कुछ लक्षण बताए है हो यहां व्यक्त करना समीचीन होगा ।
प्रथम यदि हमें जिसके पास बैठने से आह्लाद प्रकट होने लगे या मन की स्थिति आंनद ने आने लगे तो समझो वह गुरु पद वाच्य है ।
यदि बार बार उसकी स्मृति आए और उसकी ओर खिचाव हो तो समझना चाहिए हमने श्रेष्ठ साधक को पा लिया जो गुरुपद को प्राप्त हो चुका ।
यदि उसके सानिध्य में सारे कुविचार पलायन कर अपार शांति का अहसास होने लगे तो वह इस योग्य है कि शिवत्व को पा चुका है।
इसी तरह और भी कई । हालाकि यह भी सच है कि उनकी इच्छा के बिना हम उन्हें कभी नहीं समझ सकते क्योंकि उनकी इच्छा उनकी नहीं रह जाती बल्कि शिव इक्ष्णा हो चुकी होती है । अब समझे साधन पथ । साधन वहीं को मन को भाए । मन जिसे स्वीकार करे क्योंकि बिना मन के स्वीकार किए हम कभी प्रगति नहीं कर सकते । तो कोई भी साधन पथ हो वह हमारे स्वभाव के अनुकूल हो । किसी को भक्ति और प्रेम से भरा हुआ अलमस्त साधन पथ भाता है तो कोई ह ठ योग का पथिक बनना चाहता है कोई कोई ज्ञान की निर्बाध धारा में वहना चाहता तो कोई विकट तंत्र का मार्ग वरण करने में खुद को कृतकृत्य समझता ।
मेरे विचार से हम ये निर्धारण क्यों करे कि हमारा मार्ग कौन सा , क्यों ना हम ये भी जगत जननी पर छोड़ दे और हम सिर्फ ये अभीप्सा रखे कि वह करुणामय हमे स्नेह से उठा कर अपनी गोद में बिठा अपने आंचल में छिपा ले ।हम उसके पुत्र क्यों ना बने भले ही हम साधक ना बन सके लेकिन एक लायक पुत्र तो बन ही जाए कि वह मां परा अंबा स्वयं हमें अपना पुत्र होने का उद्घोष करे ।
-जयति अवधूतेश्वर
Comments (1 )
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आपके विचार से मैं पूर्ण रूप से सहमत हूं इस अवस्था में ज्यादातर साधक सही मार्ग नहीं चुन पाते। मार्गदर्शन के बिना उनके लिए यह सम्भव नहीं होता। समर्पण अतिआवश्यक है। मार्गदर्शन के लिए कोटि-कोटि धन्यवाद। ॐ नमः शिवाय 🙏
Perfectly said. .