आषाढ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा या ब्यास पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। गुरु पूर्णिमा को ब्यास पूर्णिमा कह कर क्यों संबोधित किया जाता है ये विचारणीय प्रश्न है। क्योंकि महर्षि वेद व्यास निश्चित ही ऋषि श्रेष्ठ और वेदों के संकलन कर्ता रहे लेकिन सिर्फ इसी कारण उनका नाम गुरु पूर्णिमा के साथ लिया जाना किसी विशेष अर्थ में होना चाहिए। आज का विषय यही है।
व्यास जी का जन्म वृतांत ही एक पहेली है। कठोर तपस्या के बाद समग्र सिद्धियां जिसके करतलगत हों, जो योगबल से मत्स्य गंध को कमल गंध में परिणित कर दे, मुहूर्त भर में द्वीप की सृष्टि कर दे। क्या वह किसी सुंदर तरूणी के कामसर से जर्जर हो सकता है क्या ये संभव है। और फिर क्या कोई पुत्र अपने पिता के चरित्र दोष को यूं उजागर करेगा। बल्कि उसे छिपाने का प्रयास करेगा। वास्तव में महर्षि व्यास की जन्म कथा एक पहेली है। जिसका सीधा सम्बन्ध गुरु तत्व और उसकी महती कृपा को उद्भा टित करता है। आत्मज्ञान रहित देह बोध में लिप्त जीव है मत्स्यगंधा अर्थात अदीक्षित जीव की अवस्था ही मत्स्यगंधा है। वही मत्स्यगंधा परासर के स्पर्श से पद्मगंधा हो गई। परासर कौन है? सदगुरु ही परासर है। परा अर्थात परम तत्व ब्रह्म को ही जिन्होंने सर सदृश संधान किया है। परम तत्व में सर वत तन्मय होने के कौशल की जो शिक्षा दे सके वहीं ब्रह्म ज्ञान दाता दीक्षा गुरु ही परासर।
गुरु जब जीव अवस्था का आवरण दूर कर देते है, शिष्य के तृतीय नेत्र का उन्मीलन कर उसे ऋतंभरा स्थिति में प्रतिष्ठित कर देते है, उसी माहेंद्रयोग में व्यास का जन्म होता है। भारत के सिद्ध योगाचार्य गण इस रहस्य से अवगत है। माता पिता के रजोवीर्य संयोग से जैसे देह का जन्म होता है वैसे ही परासर रूपी सदगुरु के चिन्मय शक्ति पात से शिष्य के द्विदल में ज्योतिर्घन दिव्य तनु प्रकट होता है। कहा जाता है कि द्वीप में व्यास जी का जन्म हुआ। चतुर्दिक से जल द्वारा घेरे हुए स्थल को द्वीप कहा जाता है। घनकृष्ण परतों की यवनिका वेध करके श्वेत ज्योति समुद्र का जब आविर्भाव होता है, विंदु के मध्य में ऋतंभरा प्रज्ञा का स्फुरण होता है - वही है द्वैपायन अवस्था। ऋतंभरा वेद वाणी भी तभी प्रकट होती है। सिद्ध काम ये जीवात्मा ही व्यास है। तभी वह विशाल बुद्धि, फुल्लार्विंदायतपत्र नेत्र । महेश्वर मतानुसार इस अवस्था विशेष का नाम है जीव का महा चेतन समुत्थान। बोधि के बोधन से, तेज व आर्चि के तड़ित संघात से उद्भूत उस परम मुहूर्त को कहा गया है भर्ग का प्रकाश - भर्ग देवस्य धीमहि। स्वतोत्साहित वेद वाणी का गुह्य तत्व विश्लेषण, विभाग या ब्यास करण करने की क्षमता इसी समय से साधक को प्राप्त होती है। जीव भाव के बदले में निरंजन शिव तत्व में साधक की ये जो प्रतिष्ठा होती है अथर्ववेद में उसे कहा गया है -- ब्रह्मण्या देवत्व। उदगीथ योग का ये एक चरम व परम साध्य साधन तत्व - आनंद व्योमसांद्र: ब्रह्मन्यदेवोहयम निष्कलो तु तुरीय:।गुरु कृपा से जीव की चिद भूमि पर भर्ग रूपी ब्रह्मन्य देव का परम प्रकाश ही व्यास का जन्म है।
वास्तव में व्यास का प्राकट्य जीव में शिवत्व के बोध का प्राकट्य है। तभी साधक में गुरूतत्व का परम प्रकाश प्रस्फुटित होता है। जो समग्र के कल्याणार्थ सतत प्रयास रत और उत्साहित बना रहता है।
गुरु तत्व जीव के कल्याण के लिए सदैव लालायित रहता है। वे सदैव आह्वान करते है कि आओ और मुक्ति के पथ का अनुसंधान करो जिसके लिए आपका जन्म हुआ है। समर्थ गुरु शिष्य को जाग्रत कर ना केवल उसकी चिद शक्ति का उत्थान करते है बल्कि सट चक्र का वेधन करा उसे शिवत्व में स्थापित कर देते है याकि शिष्य को गुरु में परिणित कर देते है।
तो आइए हम सब गुरु पूर्णिमा के परम पावन पर्व पर गुरु तत्व का आह्वाहन करें जो हमारी चेतना में उतर कर हमें जीवत्व के बंधन से मुक्त कर शिवत्व में स्थापित करने की अहेतुकी कृपा करें।
सदगुरु नाथ महाराज की जय, अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त।
जयति अवधूतेश्वर।
Comments (3 )
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Nicely written with very deep description of guru tatwa. Jai gurudev.
Jai Gurudev.
Very well explained.Happy Gurupurnima🙏
Happy Gurupurnima.