कैलाश : एक अतंर्यात्रा - Part 6:

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यमद्वार, बहुत भय दायक स्मृति मनुष्य के लिए। मृत्यु और यम की स्मृति आते ही जैसे समस्त जागतिक विस्तार से विराम सा महसूस होता है। जब सबकुछ अंत में समाप्त ही हो जाना है फिर इतनी आपाधापी क्यों? क्यों हम आज हर स्थिति पर संघर्ष करते नजर आते है। क्या सब मदहोश है, क्या सभी अपनी स्मृति का लोप कर चुके है। मै कहूंगा यही है उस विराट पुरुष की महामाया जो समस्त प्राणी मात्र को भ्रम में डाले रहती है। दारचेन यानि आज्ञा चक्र। यही वह स्थान है जहां किसी साधक का दूसरा जन्म भी होता है।

यही वह स्थान है जहां यम यानि काल पुरुष की कारागार से मुक्ति मिलती है। तभी तो यम के द्वार को पार करने का तात्पर्य ही है कि आप काल की सीमा से परे चले गए यानि महाकाल की सत्ता में प्रवेश कर चुके हो। इसे कुछ परा विज्ञानी चतुर्थ आयाम कह कर भी संबोधित करते है। चतुर्थ आयाम मतलब त्रिगुन मयी मातृ सत्ता की सीमा से बाहर चले जाना। जहां समय नित्य वर्तमान है। यही वह स्थान है जहां पर भूत, भविष्य और वर्तमान का विभाजन नहीं होता। समय का नित्य प्रवाह यहां आकर जैसे थम सा जाता है। क्योंकि इस क्षेत्र में समय की गति इतनी मंथर होती है कि लगता ही नहीं कि वह प्रवाहमान है।

यम द्वार लांघने के बाद साधक को निश्चित हो जाना चाहिए कि वह शिव की अलौकिक सत्ता में प्रवेश पा चुका है। अब मृत्यु का भय नहीं। लेकिन कौतुक यह है कि यात्री सबसे ज्यादा भय ग्रस्त इसी क्षेत्र में होते है। सिर्फ वही साधक आंनद और मस्ती में चलता है जो गुरु चरणों का आश्रय ले शरणागत भाव से यात्रा कर रहा है। उसका अपना ना कोई प्रयास है ना ही करता भाव का अभिमान। उसके पास अपना कहने को कुछ नहीं होता सिवाय शिवा शिव के चरण युगल के। मृत्यु को वो इसलिए नहीं मानता क्योंकि उसने जन्म को नहीं माना। जन्म और मृत्यु के बीच जो जीवन मिलता है उसमें ज्यादार मनुष्य बेहोश रहते है। तभी तो मृत्यु के समय होश नहीं रहता। यदि जीवन को होश में जिया होता तो मृत्यु भी होश में होती और फिर जन्म के समय भी होश रहता। जिनको जन्म और मृत्यु के समय होश रहता है वे विरले साधक ही मृत्युंजय योग को प्राप्त होते है। वे कभी मदहोश नहीं होते। वे नित्य जाग्रत है। कहा भी जाता है कि योगी और काला सर्प कभी नहीं सोते।

इसी रास्ते पर चलते हुए रह रह कर कैलाश की अलौकिक छटा एक अनिर्वचनीय अनुभूति से सर्वांग को आह्लाद से भर देती है। आज्ञा चक्र के और सहस्रार चक्र के बीच साधक को तीन पड़ाव से एक साथ गुजरना होता है। जो त्रिभुज की तरह होते है। तीनो ही पड़ाव इतने श्रेष्ठ और दिव्य है कि कोटि कोटि साधकों में से कोई एक इसके आगे की यात्रा के लिए खुद को सक्षम पाता है अन्यथा अधिकतर सिद्ध साधक इन्हीं पड़ाव पर खुद की जीव सत्ता को मिटा शिव की अंश भूता शक्तियों से एकाकार हो तदनुरूप उसी रूप में लय हो जाते है। और इसी को पूर्ण मुक्त अवस्था समझ अपनी यात्रा की विराम देते है। यह पड़ाव है  डेरापुक, चरण पादुका, और डोलमा पास। आप इसे आंतरिक साधना के स्तर पर अर्द्ध नारीेश्वर, गुरु पादुका दर्शन और ओंकार का स्थान कह सकते हो।

डेरा पुक यानि अर्द्ध नारिश्वर। इसी स्थान पर साधक दक्षिणा मूर्ति गुरु का ध्यान करता है। शिव का उमा से युक्त होकर दक्षिणा मूर्ति रूप में दर्शन पा साधक कृतार्थ हो जाता है। लेकिन सावधान यह दर्शन महाकैलाश पर सुशोभित उस परम ऊर्जा का प्रतिबिंब मात्र है। चूंकि चिन्मय का प्रतिबिंब भी चिन्मय ही होता है इसलिए पूर्ण कल्याणकारी होता है। लेकिन जो लक्ष्य लेकर एक साधक अंतर्यात्रा पर निकला है उसे महाकैलाश के पहले विश्राम कहां?

दूसरा स्थान चरण पादुका दर्शन। जहां पर साधक कैलाश की तलहटी में जाकर उसे स्पर्श कर जीवन को सुकृत करता है। लेकिन जब दृष्टि में महाकैलाश की हिमाच्छादित शिखर पर नीलोज्ज्वल मधुर आभा को झिलमिल झिलमिल नृत्य करते हुए पा लेता है वह लोक विस्मृत हुआ बस अपलक उसी ध्यान में अंदर बाहर उसी लब्ध प्रकाश पुंज को नर्तन करता हुआ विभोर हो कभी नृत्य करता है कभी स्तब्ध सा, कभी जड़वत सा कभी बिल्कुल सहज अवस्था में मग्न रहता है। वह जानता है अंतर की ऊर्जा और बाहर की ऊर्जा सम होते ही ये देह छूट जाएगा। वह अपनी जन्मदात्री को वचन देकर आया है कि वापिस आयेगा। अपने दैहिक कर्तव्य बोध को स्मरण कर वह कैलाश स्पर्श की चेष्टा नहीं करता। लेकिन चन्द्र नाड़ी से निश्रत द्वितीया के चन्द्र को वह गंध अर्पित करता है चरण पादुका पर उड़ेलने के लिए। यही द्वितीया का चन्द्र आगे चल कर साधक का संबल बनता है क्योंकि मृत्युंजय योग में शिव के मस्तिष्क पर स्थित द्वितीया के चन्द्र का सहचर करना पड़ता है।

तीसरा स्थान है ओंकार स्थान जिसे मैंने डोल्मा पास के नाम से विहित किया। चूंकि यह स्थान महाकैलाश की ऊंचाई के लगभग होता है। तो शिव के चरणों से निनादित प्रणव की झंकार इस स्थान को गुंजायमान करती रहती है। कुछ साधक इसी स्थान पर पर महासमाधि को प्राप्त हो जाते है और शब्द ब्रह्म में लीन हो जाते है। नाथ सम्प्रदाय के साधक नाद ब्रह्म के उपासक होते है वे धूनी जला कर अनवरत नाद श्रवन कर अपने अभीष्ट को पाने में तत्पर रहते है। यही नाद आपको अपने लक्ष्य की ओर ले जाता है। बस इसी नाद पर मन की एकाग्रता सिद्ध करनी होती है।

जय अवधूतेश्वर

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