वह रस स्वरूप है। पर रस का अभ्युदय कैसे हो, वह कैसा रस है कि जिसको पान करने के उपरांत फिर किसी भौतिक रस की आकांक्षा शेष नहीं रह जाती। चिती के प्रकाश परस्पर खेलन लागे। यहां चिति से तात्पर्य कुण्डलिनी शक्ति से है, फिर उसके दो प्रकाश, वह भी आपस में क्रीड़ा रत है? अजीब पहेली, अजीब तिलस्म, जिसका अतापता नहीं चलता। सब दौड़ रहे आपाधापी पड़ी है, जिधर देखो उधर भागम भाग कोई तो स्थिर नहीं; यही प्रकृति है और यही है मिथत्व। इसी मिथ्या में से सत्य को अनावृत कर लेना है क्योंकि इसी मिथत्व में वह परम सत्य छिपा हुआ है और हमारे साथ सतत आंख मिचौली का खेल खेल रहा है हमारी दृष्टि जब उस सत्य के लिए व्यग्र हो तो वह फिर हमसे छिपा नहीं रह सकता। उसे अनावृत होना ही होगा पर इसके लिए कितने लालायित है; कौन सोच पा रहा है? इतनी चिंताएं अंतस मै डेरा डाले बैठी है कि चिंतन को समय नहीं। हम लौटना है, स्थिर होना, दृष्टि को सत्य पर लक्षित करना है। पर क्या ये इतना सहज है? सहज तो है पर तब जब हम अपनी जटिलता से निजात पा ले, अपने जीवत्व को ध्वंस कर शिवत्व की ओर लौट चले जो हर जीव का ना केवल प्रथम कर्तव्य है बल्कि अधिकार भी है।
चिति
कुण्डलिनी, सर्पिणी, क्रिया शक्ति, आह्लदिनी, संवित प्रज्ञा ना जाने कितने नाम उस ऊर्जा के जो कभी दृष्टि में आती है कभी गहरे आवरण से छिपी हुई दूर कहीं मुस्कराती सी प्रतीत होती है। समिष्टी में अपने होने का बल्कि यूं कहिए सिर्फ उसी के होने का बोध कराती है तो कभी व्यस्टी में अठखेलियां करती प्रतीत होती है। मेरी दृष्टि में योगी की सर्वोच्च अभीप्सा उस नित्य सनातनी ब्रह्मशक्ती की गोद में स्वयं को निर्द्वन्द छोड़ कर उसकी लीला वैविद्धय को निहार आह्लाद से परिवेष्टित बने रहना ही है। उस अवस्था में हम कह सकते है नित्य लीला में प्रवेश। जिसे वैष्णव निकुंज लीला में प्रवेश की संज्ञा से संबोधित करते है। ऊर्जा का उत्थान सतत उत्तरमुख हो सुन्य पथ पर प्रवाहित होता रहता है जो विरजा नाड़ी में आंनद स्फुरना भर देता है। यही बृज का नंदन कानन है लेकिन यह आता बहुत परीक्षण के बाद। कोई कोई साधक ही गुरुकृपा का आलंबन ले पहुंच पाते है क्योंकि उसके पहले महान झंझावत लिए वैतरिणी को पार करना पड़ता है जहां सिवाय अंधकार के कुछ नहीं। इतनी निष्तब्धता की कभी कभी खुद के होने का बोध भी भ्रम सा प्रतीत होता है अक्सर साधक इसी भयावहता को देख वापिस लौट पड़ते है और उस आनंद वन के अव्यक्त सौंदर्य से वंचित रह जाते है जो जीव का नित्य धाम है जो उसके मृत्युंजय होने का बोध कराता है, जिसको पाकर वह कृत्यक्रत्य हो जाता है। वह आनंद से इतना आप्लावित हो जाता है कि उसकी मन: स्थिति उस अवस्था में पहुंच जाती है जहां देव बोध लुप्त प्राय रहता है और वह पिसाच की भांति, या पागल के जैसा या सहज शिशु की तरह उस परमानन्द में निमग्न हो वायु की तरह विचरण करता है यही है योगियों की परम काम्य अवधूत अवस्था। जो वैदिक या तांत्रिक किसी भी रास्ते से चलो, प्राप्त होती है, यदि साधक का लक्ष्य परम की ओर है तो।
Comments (3 )
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Beautifully Explained ✌🤞👌👌
Thanks.
Very deep!
Thanks..
क्या यही दृष्टा भाव है, हर कर्म, हर घटना को प्रभु लीला जानते हुए निहारना व उसी भाव में स्थित रहना। सुख दुख, जन्म मृत्यु, मान अपमान सभी घटनाओं में दृष्टा भाव । क्या यही योगी का आचरण है?
बस दृष्टा भाव अपनी चेतना में भी होना चाहिए अर्थात अंदर के विकारों और ऊकार को भी लक्षित करने की क्षमता.