
कैलाश की परिकल्पना आते ही आनंदधाम नित्य कल्याण के मूल स्रोत परमशिव का दिव्य और कमनीयॅ विग्रह चेतना में साकार हो उठता है। साथ ही वात्सल्य की मूल भंडारिनी मां परा अंबा का करुणामय वपु नेत्रों के सम्मुख आ उपस्थित होता है। कैलाश को प्रकाशित करने वाले आदि अनादि समस्त लोक ब्रह्माण्ड के नियामक उन युगल नित्य बरजोरी के श्री चरण का दिव्य प्रकाश जब किंचित मात्र कृपा करता है तो उस स्थूल कैलाश के दर्शन का परम सौभाग्य प्राप्त होता है। किन्तु यक्ष प्रश्न ये है कि उस स्थूल कैलाश के दर्शन और परिक्रमा से क्या हम कैलाशी हुए। या कैलाशी विशेषण लगाना दृष्टता समझी जाए। क्योंकि कैलाशी तो वह जो उस पर निवास करे। और तुलसी बाबा लिखते है :
सिद्ध, तपोधन, जोगिजन, सुर, किन्नर, मुनि, वृंद।
बसहि तहां सुकृती सकल, सेव हि शिव सुख कंद।।
यहां गुसाईं जी ने स्पष्ट लिख दिया कि कैलाशी कौन है जो शिव की सेवा में नित्य रहते हुए जीवन को कृतार्थ कर आप्त काम हुए।
इनमे से हमारी कौन सी विशेषता है क्या हम सिद्ध है या योगी है या फिर हमने बहुत तप किया मुनि की श्रेणी में आते है या फिर हम देवता या यक्ष किन्नर में से कोई है। जवाब "नहीं" है आयेगा। फिर कैलाशी कैसे?
बाह्विक कैलाश के स्पर्श मात्र से कोई कैलाशी नहीं होता, कैलाशी होने के लिए हमें अंतर्यात्रा करनी होगी। देह में स्थित कैलाश को चिन्हित करना होगा और उस पर पहुंच कर नित्य शिव का सानिध्य प्राप्त करना होगा। लेकिन तब शायद कैलाशी कहलाने की तृष्णा ही ना रहे। ये अहंकार कि हम किसी विशिष्ट संबोधन से पुकारे जाएं। हमें समाज में विशिष्ट सम्मान मिले, हम कुछ अलग है सबसे और दिव्य। ये सकल भाव तिरोहित हो जाएंगे जब हम यथार्थ में कैलाशी हो जाएंगे तब। मै ऐसे कैलाशी के पैर धो धोकर नित्य पान करना चाहूंगा। उसकी सेवा में खुद को समर्पित कर दूंगा हमेशा हमेशा को। मेरे लिए वह शिव ही होगा। मेरे लिए मेरा पिता।
सहस्रार की मध्य कणिका के केंद्र में गोप्य सुण्य स्थान है जहां नील लोहित दुती नित्य युग नद्ध है। नित्य विहार में रत या यूं कहो उन्हें अलग संबोधन से विहित नहीं किया जा सकता। ना ही वे दो है ना ही एक बस मौन हो उस रस महा रस का आस्वाद न ले उसी में लयाता प्राप्त कर साधक तदाकार हो स्तब्ध हो जाता है और हो जाता है परिपूर्ण वह समस्त सांसारिक कृत्य से मुक्त हो सहज अवस्था को प्राप्त होता है। ये गुरुजनों से सुना है।
Comments (6 )
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विचार बहुत ही सहि हैं और यहीं कारण हैं की अंतर यात्रा करने वाला कैलाश जाने का इच्छुक नहीं होगा अपितु शिव जो उसमें ख़ुद विराजमान हैं, उससे ढूँढ उसकी सेवा में सदैव रहकर अपनी और औरों की गति सुधरेगा। कैलास यात्रा शायद उस राह के लिए हमने एक छोटा मार्ग के रूप में देखा। कैलाशि सुनके यह करोर पता चलता हैं की उसमें भी वही चाह हैं जो मुझमें हैं और शायद एक प्रकार से जोड़ने का ज़रिया। जैसा भाई या कोई भी रिश्ता
आप सबका साधुवाद लेख पर विचार प्रकट करने के लिए। साथ ही क्षमा इसलिए कि कहीं ना कहीं किसी को पीड़ा भी पहुंची।जबकि मेरा ये उद्देश्य कतई नहीं था। स्थूल कैलाश हो या तुरीय कैलाश हर स्थिति में पूज्य और स्तुत्य है ।क्योंकि स्थूल यात्रा मैने भी की । आप सब यदि गहराई से लेख पढ़ोगे तो लिखने का उद्देश्य समझ आएगा। मैने स्थूल यात्रा के लिए बिल्कुल भी माना नही किया क्योंकि मैं तो अक्सर ऐसी यात्राएं करता ही रहता हूं सीमित साधन होने पर भी। मेरा उद्देश्य उसको लक्षित करना या कराना है जो अलक्ष्य में है। आध्यात्म पथ पर सबसे बड़ी बाधा है अहंकार । जिससे निजात हर उस साधक को पाना है जो सिर्फ उस परम बिंदु से एकाकार होने की अभीप्सा रखता है। आप सब सुधि पाठक और विज्ञ जन है।मेरी भावना को महसूस कर लेंगे इसी आशा के साथ। कृष्ण चैतन्य.
It is the inner journey that matters, Kailash is inside everyone. Kailash is not a destination but must be a inner journey to become one with our true identity.
आप सबका साधुवाद लेख पर विचार प्रकट करने के लिए। साथ ही क्षमा इसलिए कि कहीं ना कहीं किसी को पीड़ा भी पहुंची।जबकि मेरा ये उद्देश्य कतई नहीं था। स्थूल कैलाश हो या तुरीय कैलाश हर स्थिति में पूज्य और स्तुत्य है ।क्योंकि स्थूल यात्रा मैने भी की । आप सब यदि गहराई से लेख पढ़ोगे तो लिखने का उद्देश्य समझ आएगा। मैने स्थूल यात्रा के लिए बिल्कुल भी माना नही किया क्योंकि मैं तो अक्सर ऐसी यात्राएं करता ही रहता हूं सीमित साधन होने पर भी। मेरा उद्देश्य उसको लक्षित करना या कराना है जो अलक्ष्य में है। आध्यात्म पथ पर सबसे बड़ी बाधा है अहंकार । जिससे निजात हर उस साधक को पाना है जो सिर्फ उस परम बिंदु से एकाकार होने की अभीप्सा रखता है। आप सब सुधि पाठक और विज्ञ जन है।मेरी भावना को महसूस कर लेंगे इसी आशा के साथ। कृष्ण चैतन्य.
आपके विचार से पूर्णतया सहमत हूँ जिसने अंतर्मन की यात्रा करके सारी इच्छाओ और कर्मो को भगवान शिव को समर्पित कर दिया हो वही सच्चा साधक है परंतु कैलाश यात्रा या अन्य सभी धार्मिक यात्राए आरम्भिक साधको के मन के तार को एक बार झंक्रित जरूर करती है, मन पवित्रता की और चलाएमान हो जाता है ये साधक के उपर निर्भर करता है कि वो यात्रा के बाद इस स्थिति को बनाए रखता है या शीघ्र ही भुला देता है । लेकिन हर धार्मिक यात्रा में कोइ न कोइ उच्च कोटि का साधक अवश्य मिलता है जिसका संग आध्यात्मिक लाभ देता है जैसा कि हमारी कैलाश यात्रा में भी अनुभव हुवा। कैलाशी विशेषण लगाकर शायद हम अपने आप को याद दिलाते हैं कि हम उन भगवान शिव की शरण में हैं जो समस्त सृष्टी में व्याप्त है। ॐ नमः शिवाय 🌹🙏
आप सबका साधुवाद लेख पर विचार प्रकट करने के लिए। साथ ही क्षमा इसलिए कि कहीं ना कहीं किसी को पीड़ा भी पहुंची।जबकि मेरा ये उद्देश्य कतई नहीं था। स्थूल कैलाश हो या तुरीय कैलाश हर स्थिति में पूज्य और स्तुत्य है ।क्योंकि स्थूल यात्रा मैने भी की । आप सब यदि गहराई से लेख पढ़ोगे तो लिखने का उद्देश्य समझ आएगा। मैने स्थूल यात्रा के लिए बिल्कुल भी माना नही किया क्योंकि मैं तो अक्सर ऐसी यात्राएं करता ही रहता हूं सीमित साधन होने पर भी। मेरा उद्देश्य उसको लक्षित करना या कराना है जो अलक्ष्य में है। आध्यात्म पथ पर सबसे बड़ी बाधा है अहंकार । जिससे निजात हर उस साधक को पाना है जो सिर्फ उस परम बिंदु से एकाकार होने की अभीप्सा रखता है। आप सब सुधि पाठक और विज्ञ जन है।मेरी भावना को महसूस कर लेंगे इसी आशा के साथ। कृष्ण चैतन्य.
आप का कहना उचित है परन्तु अन्तर की यात्रा, आरम्भ में सब के सम्भव नही है। हमारे दृष्टिमें, अन्तर यात्रा के योग्य होनें के लिये बाहरी यात्रा कुछ हद तक आवश्यक है। दौड़ने के लिए पहले चलना सीखना पड़ता है। सब को सामर्थ गुरु भी नही मिलता जो साधक को आध्य्तम का मार्ग दिखा सके। कैलाशी तो अपने आप को किसी को भी नही बोलना चाहिए। अन्तर की यात्रा मनुष्य की तीव्र इच्छा और शिव जी की असीम अनुकम्पा से सम्भव हो सकता है तब तक स्थूल यात्रा का आनंद लें। 🙏🙏
आप सबका साधुवाद लेख पर विचार प्रकट करने के लिए। साथ ही क्षमा इसलिए कि कहीं ना कहीं किसी को पीड़ा भी पहुंची।जबकि मेरा ये उद्देश्य कतई नहीं था। स्थूल कैलाश हो या तुरीय कैलाश हर स्थिति में पूज्य और स्तुत्य है ।क्योंकि स्थूल यात्रा मैने भी की । आप सब यदि गहराई से लेख पढ़ोगे तो लिखने का उद्देश्य समझ आएगा। मैने स्थूल यात्रा के लिए बिल्कुल भी माना नही किया क्योंकि मैं तो अक्सर ऐसी यात्राएं करता ही रहता हूं सीमित साधन होने पर भी। मेरा उद्देश्य उसको लक्षित करना या कराना है जो अलक्ष्य में है। आध्यात्म पथ पर सबसे बड़ी बाधा है अहंकार । जिससे निजात हर उस साधक को पाना है जो सिर्फ उस परम बिंदु से एकाकार होने की अभीप्सा रखता है। आप सब सुधि पाठक और विज्ञ जन है।मेरी भावना को महसूस कर लेंगे इसी आशा के साथ। कृष्ण चैतन्य.
आपका उद्देश्य सत्य को प्रत्यक्ष करना था और वह आपने अति उत्तम तरीके से किया। हम सभी परमात्मा का आभार मानते हैं कि हमें आपके विचार पढने को मिले। हमें पीडा नहीं बल्कि आपका स्नेह अनुभव हुआ। ॐ नमः शिवाय 🌹🙏
आप ने बहुत सुंदर ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किए। क्षमा मांगने की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है। मैं अपनी स्थिती बता रही थी। भोलेनाथ से प्रार्थना है कि हमें अन्तर यात्रा करने में भी एक दिन सक्षम करें 🙏🙏