कैलाश : एक अतंर्यात्रा - Part 2:

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मणि पूरक चक्र तक पहुंचने के लिए काल की शक्ति काली सबसे कठिन अवरोध प्रकट करती ही है। ये अवरोध कभी कभी साधक को इतना वेवस कर देता है कि साधक को समझ ही नहीं आता कि क्या करे, किधर जाए। तभी तो अभी तक असमंजस की स्थिति बनी हुई है क्योंकि गुंजी में एक और स्वास्थ्य परीक्षण होना है। क्या पता इसमें विफल रहे तो। लेकिन आप गौर कीजिए अब ये परीक्षण रक्तचाप का होगा वायु के दवाब को सह सकने की स्थिति का होगा। साथ में सारी सुविधाएं भी है आपको बरगलाने के लिए। स्वाधिष्ठान चक्र के आसपास ये सब स्वाभाविक है होगा, जरूर होगा, बहुत आकर्षण होगे एक उन्माद की सी अवस्था होगी। लेकिन साधक सावधान अपने लक्ष्य को स्मरण करते रहना है। परम ऊर्जा के प्रति आपकी तीव्र ललक ही आपको समस्त झंझावातों से निकाल कर ले जाएगी।

अब एक पड़ाव और है सबसे मुश्किल - काला पानी। जिसे काली नदी का उदगम कहा जाता है। यही वो स्थान है जो निश्चित करता है कि साधक परा वाणी ओमकार के दर्शन और नाद सुनने के लायक है या नहीं। काली के प्रति लोक का भाव बड़ा ही डरावना रहा है उनके भीभत्स स्वरूप का चिंतन करते ही भय की सिरहन रीड में दौड़ने लगती है। लेकिन मूलाधार की शक्ति काली ही है जब तक आपका भाव उनके प्रति पवित्र और मातृ भाव से परिपूर्ण नहीं होगा आप उनसे पार हो ही नहीं सकते। गीता में स्वयं कृष्ण कहते है :

मम माया अति दुरत्या।

दुरत्य शब्द का अर्थ है जिसे लांघा ना जा सके। कृष्ण की शक्ति है काली। जिसको लांघा ही नहीं जा सकता फिर उसे कौन पार कर सकता है। वे ममतामय माता ही वात्सल्य से परिपूर्ण होने के कारण अपनी संतान को स्वयं गोद में लेकर उस पार कर देती है। काला पानी में सूर्य नाड़ी संसय बढ़ा देती है कि यदि नाग पर्वत के दर्शन नहीं हुए तो ओंकार पर्वत के दर्शन नहीं होंगे। लेकिन सर्नागत भक्त जो पूरी तरह मां पर आश्रित है वह जानता है कि यहां तक वह कैसे पहुंचा है। उसकी निर्बलता का भान शायद ही किसी को हो। वह जानता है कि मां परा अंबा सारे अवरोध हटा परम का मार्ग प्रशस्त करेगी ही क्योंकि यहां वह अपने बल बूते पर नहीं आया है बल्कि लाया गया है। तो वह सूर्य नाड़ी को समझाता है बड़े विश्वास के साथ कि इस बार सारे दर्शन होंगे कोई भी दर्शन छूटेगा नहीं। और मां दिखाती है कि श्रृद्धा और विश्वास में कितनी सामर्थ होती है। तभी तो तुलसी दास महाराज मानस में लिखते है

भवानी शंकर वन्दे श्रृद्धा विश्वास रूपनौ।

अर्थात श्रृद्धा ही मां पार्वती है और विश्वास ही शिव। जिसके हृदय में ये दोनों आ गए तो समझिए कि शिवा शिव की कृपा किरन का चेतना में अभ्युदय हो चुका है। संसय रूपी कोहरे और बादल को छांट कर नाग पर्वत के स्पष्ट दर्शन होते है। और सब खुशी से झूम उठते है। स्वाधिष्ठान के थोड़ा ऊपर नाग यानि कुंडलनी और उसका भैरव यहां शक्ति का भैरवी स्वरूप होता है और वह अपने भैरव के साथ विराजती है। तभी कौलाचार मार्ग में भैरवी चक्र साधना का विधान भी है।

यहां से साधक पहुंचता है नाभीढांग यानी नाभि चक्र जिसे हम मणिपूर चक्र के नाम से भी जानते है। यही वह स्थान है जहां पर परा वाणी का प्राकट्य है नाद के रूप में। तभी तो प्रतीक है ओंकार पर्वत। जो अपनी सुस्पष्ट आकृति लिए आह्वान करता है कि आइए देखिए सनातन साधना का विराट पथ आपका स्वागत करता है और विश्वास दिलाता है कि जो मार्ग हमारे वैदिक ऋषियों ने अपनी गहन साधना से लक्षित किया वह सिर्फ मिथक नहीं है बल्कि आत्म साक्षात्कार का सबसे सशक्त साधन है। नाभीढांग में एक स्थान पर पर्वत की आकृति बिल्कुल नाभि के जैसी है। और नाभि में ही मणिपूर चक्र होता है। यहां पर समस्त सुविधाएं और बड़े ही आत्मीय ढंग से स्वागत। कुछ साधक यहां तक आते आते पस्त पड़ जाते है। लेकिन यह स्थान मातृ शक्ति का निज स्थान है। यहां पर भी विराट ऐश्वर्य है लेकिन हमारा लक्ष्य ये ऐश्वर्य नहीं बल्कि आंनद वन का अप्रतिम सौंदर्य है जहां शिवा शिव अपनी सम्पूर्ण कलाओं से अपने समस्त प्रभृति गणों के साथ विराजते है। हमे उन्ही युगल पदार विंद जो नीलोज्जवल आभा से प्रस्फुटित है। कोटि कोटि जीवन जिनके लिए अर्पण किए जाए तो भी कम। ऐसे नीलकंठ शिव और परमेश्वरी उमा के लिए लालायित साधक अपना लक्ष्य विचार उत्साह से भर जाता है।

जयति अवधूतेश्वर

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