विशुद्ध चक्र ख्याति प्राप्त के लिए एक बड़ा अवयव है। साधक यहां कुछ समय तक रुक सकता है। क्योंकि यहां कुछ ठहराव सा है साधन में। लेकिन हमारा लक्ष्य तो अगम्य कैलाश है तो रुकना कैसा। स्वमेव प्राप्त सुविधाएं जो सिद्धियों का स्वरूप ही है कुछ आराम तो देती है लेकिन जिनका ध्येय परम की ओर है उन्हें विश्राम कहां?
हमारी यात्रा आगे बढ़ती है। कुछ समय बाद हमारे सामने एक तरफ होता है "राक्षस ताल" या "चन्द्र सरोवर" तो थोड़ा आगे दूसरी तरफ है "मानस सरोवर" या "सूर्य सरोवर"। राक्षस ताल के जल को स्पर्श करना भी वर्जित है ऐसी वहां की मान्यता है। निश्चित मै चन्द्र सरोवर को स्पर्श नहीं करना चाहूंगा। क्योंकि चन्द्र तो विष का सहोदर ठहरा। अमृत का दूसरा पहलू विष ही तो है। आप एक की ओर चलोगे तो दूसरा भी कभी ना कभी ग्रहण करना पड़ेगा। जैसे जो साधक ब्रह्मचर्य की रट लगाए रहते है निश्चित मानिए वे किसी ना किसी रूप में काम का चिंतन भी कर रहे है। क्षेत्र चाहे अध्यात्म का हो या संसार का हठधर्मिता किसी भी स्थिति में उचित नहीं। सहज होना ही सबसे बड़ी उपलब्धि है।
स्थूल रूप से राक्षस ताल के किनारे एक बड़ा युद्ध लड़ा गया जो महान तांत्रिक मिलरेपा और प्राचीन वान जादूगरों के बीच लडा गया। बड़ी संख्या में नरसंहार हुआ। वहीं नकारात्मक ऊर्जा उस ताल के आसपास आज तक सक्रिय है। यही कारण है कि हमें उस जल के स्पर्श से बचना चाहिए। लेकिन हम अपनी सुविधा से स्थान विशेष के नियमों को अपने अनुसार बदल लेते है। कुछ हठधर्मी यात्रियों ने वहां भी डुबकी मार ली। लेकिन साधक का लक्ष्य कभी उसकी चेतना से परे नहीं होता। वह जानता है कि इस द्विविधा में उसे नहीं पड़ना इसी चन्द्र और सूर्य ताल के थोड़ा उपर है भ्रू मध्य जिसे आज्ञाचक्र के नाम से जाना जाता है। यह स्थान है दारचेन। इसी स्थान पर ईडा और पिंगला नाड़ी का मिलान होता है ब्रह्म नाड़ी के साथ। तभी इसे त्रिवेणी संगम भी कहा जाता है। मानस सरोवर का आकार सूर्य की तरह गोलाकार है इसके विपरीत राक्षस ताल चंद्राकार है। तभी तो शिव के नेत्र युगल को सूर्य और चन्द्र कहा गया और तीसरे नेत्र को अग्नि की संज्ञा दी गई। इडा और पिंगला के मिलने से एक अग्नि शिखा प्रज्जवलित होती है जो भ्रु मध्य में एक नाड़ी को सक्रिय कर देती है जिसे योग की भाषा में तृतीय नेत्र का उन्मिलन कहा जाता है। आज्ञा चक्र के जाग्रत होते ही साधक को महकैलास के दर्शन होते है तो वह उत्साह से भर जाता है। लेकिन ये दर्शन बहुत दूर से है और क्षणिक। चन्द्र ताल में चन्द्र के सारे विकारी भाव समाहित हो जाते है और यही से चंद्रमा अपने विशुद्ध रूप को प्राप्त कर द्वितीया के चंद्रमा के रूप में शिव के मस्तिष्क पर विराजता है। और अमृत का क्षरण करता है। चूंकि मृत्युंजय शिव ही उसके अधिकारी है इसलिए रावण ने उसी अमृत को पाने के लिए चन्द्र सरोवर का चयन किया तप के लिए। उसे अमृत तो मिला लेकिन नाभि में लेकिन विष के साथ। क्योंकि वह अपनी द्विविधा का त्याग नहीं पाया। हम परम ऊर्जा को पाना चाहते है। लेकिन अपनी सुख सुविधाओं का त्याग किए बिना। सम्पूर्ण ऐश्वर्य के साथ जीवन जीते हुए शिवत्व की अवधारणा सिर्फ कल्पना की लंबी उड़ान ही होगी। हमें साधन की कसौटी पर हर स्तर से खरा उतरना होगा। आत्म स्तर के साथ साथ हमें दैहिक और मन: स्तर पर भी बहुत कसना होगा। तभी तो कबीर जैसे सहज योगी कहते है कि ये मौसी का घर नहीं है सिर काट कर हथेली पर रखना होता है।
यही वह स्थान है जहां शक्ति स्वयं को युगल रूप में प्रकट कर लीला माधुरी का अस्वादन कराती है। राधा कृष्ण, सीता राम, उमा शिव इसी स्थान पर लक्षित कर साधक अपने अपने भाव से उनकी अभ्यर्थना करता है और लाभ लाभान्वित होता है। तृतीय नेत्र के जागरण के साथ ही साधक को नाद, बिंदु और लीला - इनमें से किसी ना किसी स्थिति को प्राप्त हो आंनद धाम की यात्रा के लिए तत्पर हो जाता है। अनहद का आह्वाद कारी निनाद, जो विभिन्न ध्वनियों में प्रकट होता है या ज्योति दर्शन या भावलोक के साधकों का सीधा लीला में प्रवेश। इसी को वैष्णव कुंज लीला कह आनंदित होते है। इसी स्थान से जब कैलाश की ओर साधक उन्मुख होता है तो थोड़ा सा ऊपर प्रणव यानि ओंकार का स्थान है यही पर चन्द्र के उपर बिंदु अवस्थान पाता है कुछ साधक इसी स्थान पर चन्द्र मंडल को वेध कर देव पथ की ओर चले जाते है। और विंदू के मध्य में स्थिर हो जाते है। लेकिन हमारा लक्ष्य तो महाकैलास की ओर है हम उसके पहले ठहरने वाले कहां। लेकिन शनै शनै हमें अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना है और अपने अभीष्ट को इसी जीवन के रहते पा लेना है गुरु चरणों के आश्रय को पाकर।
जय अवधूतेश्वर
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