आज्ञा चक्र ही वह स्थान है जिसे द्विदल कमल भी कहा जाता है क्योंकि इसी स्थान पर गुरु पादुका यानि उस महा कैलाश पर स्थिति उमा महेश्वर के निलोज्जवल चरण द्वय की आभा पड़ती है। कुछ साधक इसे अर्द्ध नारीश्वर का स्थान भी कहते है लेकिन मेरी दृष्टि में ये कहना समीचीन नहीं होगा। योगी इसी स्थान से देह से बाहर निकल कर समिष्टी की चेतना से मिल कर त्रिकाल दर्शी भी हो जाता है। और इसी स्थान से निकल कर सूक्ष्म देह से बाहर विचरण भी करता है। उसके लिए काल और स्थान कोई मायने नहीं रखते फिर। क्योंकि अब वह महाकाल की सत्ता में प्रवेश कर जाता है। यही से मृत्युंजय योग शुरू होता है जिसकी एक प्रविधि है लेकिन गुरुमुख।
बौद्ध साधन परम्परा में भी तृतीय नेत्र को जाग्रत किया जाता है बाहरी विधान से। लेकिन वह प्रक्रिया बेहद कष्ट प्रद है और कालांतर में उसके परिणाम अच्छे नहीं आते क्योंकि साधक विक्षिप्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है। भारतीय मनीषा ने योग की विधि विकसित की वह पूर्ण वैज्ञानिक और प्रकृति से जुड़ कर। उन्होंने प्रदर्शन को कभी वरीयता नहीं दी। तभी तो शिव पथ पृच्छन्न रहा। अनादिकाल से ही अध्यात्म की दो धाराएं समानांतर चलती रही है। एक जो समाज से जुड़ कर उसे दिशा निर्देश देती हुई मठों की व्यवस्था, दूसरी शिव पथगामी गोप्य और प्रछन्न साधन प्रणाली। मठ परम्परा में सतत अवनति देखने को मिलती है क्योंकि समाज की स्वार्थ और प्रपंच दृष्टि उसकी पवित्रता का शनै शनै ह्रास करती रही। विडम्बना तो देखिए कि मठों आश्रमों के ट्रस्ट है जिनमे घोर संसारी गृहस्थ चला रहे है और वहीं निर्धारित करते है कि वहां कौन संत रहे कौन प्रमुख बने और कौन नहीं। मेरे कहने का मतलब ये सारी व्यवस्थाएं क्यों? अरे आश्रम शिव का है शक्ति का है फिर चाहे वह संतों का हो या गृहस्थ का। हम ईश्वर की ओर चले लेकिन कब लौट पड़े हमें पता भी नहीं चला। ये सब लिखने का तात्पर्य मेरा किसी की निन्दा करना नहीं। हम सब प्रज्ञ है विचार शील है आप अपने विचार रख सकते हो।
दूसरी धारा अध्यात्म की जो गुप्त रूप से चलती रही आज भी चल रही है। पूरी तरह प्रकृति से जुड़ कर। सत्य के अनुसंधान का ऐसा जुनून कि स्वयं का होश नहीं। यहां तक कि शरीर के पोषण का भी ख्याल शायद ही कभी आता हो। ऐसे साधक को "कल क्या होगा?" ये सोचने का अवकाश कहां। वह पूर्ण निसंग भाव से अपने भाव लोक को नित उज्जवल करता हुआ उस ऋषि और अवधूत मार्ग का अनुसरण करता है जिसे आज शायद ही कोई समझता है। ऐसे साधक इतने गुप्त रूप से रहते है कि समझ ही नहीं पड़ता कि ये साधक है भी या घोर संसारी। अटपटे भेष भूषा और व्यवहार से ये सहज पकड़ में नहीं आते। यदि किंचित समझा भी जाए तो इनका व्यवहार इतना अजीब होगा कि आप हम भ्रम में पड़ जाएंगे क्योंकि ये गुनातीत अवस्था को पा चुके होते है कभी तो इतने प्रेमिल कि आपको लगे इनसे ज्यादा स्नेही शायद ही कोई हो और कभी इतने कठोर कि भ्रम हो कि ये मेरे परिचित भी है या नहीं। कभी बच्चो के जैसे बिल्कुल मासूम तो कभी ज्ञान की पराकाष्ठा लिए वयोवृद्ध की तरह। इनको जाना नहीं जा सकता। मैंने अपने जीवन में दो चार इस तरह के संतों की सेवा की शायद पिताजी ने कृपा की जो मुझे वह सौभाग्य मिला। आज जो भी हूं उन्ही के करुणा कृपा से।
साधक चाहे तो इस स्थान पर रुक सकता है क्योंकि लोक पूज्य और नामी संत बन कर जीवन को जीने के लिए ये स्थिति पर्याप्त है। साथ ही आंनद की स्थिति भी सतत बनी रहती है। यहां आकर फिर वासना से परे हो जाता है साधक। वह समस्त विकारी भाव से मुक्ति पा जाता है। शिव ने तृतीय नेत्र को उन्मीलित कर मनोज को दग्ध कर दिया और उसे अनंग बना दिया। यह योग की एक प्रक्रिया विशेष है। योगी आज्ञा चक्र पर आकर ही मन्मथ को स्थूल से हटा कर अशरीरी कर लेता है, फिर उसका पतन नहीं होता। अब उसका लक्ष्य महा कैलाश है जिसकी एक सूक्ष्म झलक वह इस स्थान से देख चुका है।
जय अवधूतेश्वर
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